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कागज और असलियत का झगड़ा

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on मंगलवार, 10 जून 2014 | 3:00 pm

Courtasy: Googleimage.com
असलियत इन दिनों बड़ा शोर मचा रही थी। हर तरफ असलियत के समर्थक भी बढ़ रहे थे। कई ब्लॉग लिखे जा रहे थे। फेसबुक पर तो जैसे असलियत के मुरीदों की बाढ़ जैसी आ गई थी। ट्विटर पर भी लोग असलियत के समर्थन में ट्वीट कर रहे थे। मोबाइल पर असलियत के समर्थन में खूब एसएमएस आते। यह मान लीजिए कि असलियत ही असलियत इन दिनों चर्चा में थी। हर तरफ कागज को खूब आलोचना झेलनी पड़ रही थी। हर कोई कागज पर गुस्सा दिखा रहा था। कागज और असलियत के बीच अघोषित सी जंग छिड़ी हुई थी। कागज इस बात को लेकर बेहद आश्चर्य में था कि कोई उसे चुनौति दे रहा है। आजादी के इतने सालों बाद कागज अपने रहने के स्थान फाइलों को जरूर बदलता रहा, लेकिन कभी ऐसे दिन नहीं देखे थे।
अब तो कागज की कोई सुन भी नहीं रहा था। हर कोई असलियत का हिमायती था। कई बार कागज कई सारे गरीबी, भुखमरी, लाचारी बेबसी खत्म करने के आंकड़े दिखाता, मगर कोई इनपर भरोसा करने की बजाए असलियत की बातें सुनने लगता। कागज को अभी भी यह गुमान था, कि 1947 से चली आ रही उसकी सत्ता को कोई इस कदर झुठला तो नहीं ही सकता, भले ही तात्कालिक तौर पर भरोसे का इम्तेहान ले ले। वह अपनी मस्ती छोडऩे तैयार ही नहीं था। हरी कालीन वाले मल्टीपोल गोलाकार भवन में जब तब सरकारें इस कागज को रखतीं और बताती कि उन्होंने बेरोजगारी को इतने फीसदी खत्म कर दिया, तो कभी गरीबी के लिए इतने करोड़ खर्च दिए, तो कभी नाली, पानी, बिजली, सडक़, खेत, खलिहानों की दुरुस्तगी इस कागज की पीठ पर लादकर रख दी जाती। अभी तक हरी कालीन वाली इस इमारत में कागज की ही आवाज गूंजती थी।
पिछले कुछ महीनों से असलियत की आवाज भी यहां सुनाई देने लगी है। इस कदर कि कागज अपने घमंड के बोझ तले ही दबने लग गया था। एक दिन थक हार कर आखिरकार कागज को अपनी ताकत दिखानी ही पड़ी। उसने अपने मातहतों, फीसदी, अंक, बढ़त, घटत, फायदा, नुकसान, धन, आवक, जावक आदि को इकट्ठा करके असलियत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। असलियत भी कहां चुप रहने वाली थी। उसने भी जवाबी हमले शुरू कर दिए। अब कागज और असलियत के बीच खुली जंग छिड़ गई। कागज सालों से सत्ता पर कसकर बैठे हुए अफसरानों के पास जा पहुंचा। अफसरान उसे अपने ज्यादा करीब लगे, चूंकि इन्होंने ही कागजों की चम्मच बनाकर देश को खूब पीया था। कागज इनके सारे कारनामों से वाकिफ था। जाने को तो वह सियासतदानों केपास भी जा सकता था। मगर जानता था, इनके पास जाने और मनुहार या धमकी देने से कोई फायदा नहीं। मनुहार ये सुनते नहीं हैं और धमकी इन्हें लगेगी नहीं, चूंकि ये फिर जीतकर विराजमान हो जाएंगे। यूं तो मनुहार अफसर तो और बिल्कुल भी नहीं सुनते, मगर धमकी से भारी डरते हैं। कागज ने अफसरों को खूब डराया, सारे काले कारनामे सामने लाने की धमकी दी। असर तो हुआ, मगर जरा उल्टा। अफसर गांवों, खेत, खलिहानों और मध्यमवर्गीय युवाओं की बातें सुनने पहुंचने लगे। महंगाई को एक कागज पर छपे फीसदी और ऊपर उठते या नीेचे गिरते गणित के निशान से नापने की बजाय टमाटर के ठेले पर हफ्ता दर हफ्ता दाम पूछकर समझने लगे। कागज तो अपनी सलामती के लिए गया था। अपनी लंबी आयु मांगने गया था। मगर यहां तो सारे अफसरों ने पाला ही बदल लिया। असलियत के पाले में जा पहुंचे। कागज सिर धुनकर सरकार की खुले बाजार में दो हजार रुपये की कीमत वाली 15 हजार में खरीदी गईं लोहे की आलमारियों में चुप जा छिपा।
- सखाजी
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