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90 करोड़ लोगों के क्या कोई जज्बात नहीं हैं

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on शुक्रवार, 20 जून 2014 | 5:57 pm

Courtasy by Google Image
हिंदी को लेकर भारत में हमेशा ही कलह की स्थिति रही है। इसकी खास वजह लोगों के सेंटीमेंट नहीं हैं, बल्कि सियासी सेंटीमेंट्स हैं। हिंदी को जब राज्य भाषा बनाए जाने की अपने जमाने के खुद उप अँगरेज़ जवाहरलाल नेहरू ने की थी, तो दक्षिण के कुछ नेताओं ने इसकी पुरजोर खिलाफत कर डाली। तुष्टिकरण की पराकाष्ठा दिखाते हुए नेहरू के कार्यकाल में इसे राज्यभाषा नहीं बनाया जा सका। आज फिर एक बार हिंदी पर सियासत गरम हो रही है। यूं लग रहा है, कि तमिल की भावनाएं ही भावनाएं हैं बाकियों का कुछ नहीं। ऐसा सिर्फ इसलिए, क्योंकि तमिल के नेता शोर्टकट वोट के लिए लोगों की भावनायें भड़काते हैं. होने को हिंदी में भी बहुत भड़काऊ नेता पड़े हैं, लेकिन इनके पास मुद्दे और भी हैं. ओडिशा की विधानसभा तो सबको मात देते हुए सदन में हिंदी बोलने की मनाही तक पर उतारू हो गई. ये हालत किसी भी विकासशील देश के लिए ठीक नहीं हो सकते. इस बात को तमिल, केरल, कन्नड़, तेलुगु, ओडिया, सबको समझना होगा. इस समय हिंदी वरसस अन्य भाषा का वक्त नहीं, बल्कि दुनिया से मुकाबले के लिए खुद को खड़ा करने का वक्त है. एक तरफ हम अंग्रेजी को अपनाने में वक्त नहीं लगाते, तो दूसरी तरफ हिंदी पे इतना हिचकिचाते हैं, आखिर ये स्वम के अंतस में छाई हीन भावना जैसी ही बात तो है.

हिंदी की चूहों से तुलना

दक्षिणी नेताओं ने हिंदी की मुखालफत में एक अजीबो गरीब तर्क दिया, उन्होंने कहा कि हिंदी को राज्यभाषा बनाने के पीछे क्या कारण हैं। तो नेहरू ने जवाब दिया, यह देश की भाषा है, ज्यादा से ज्यादा लोग इसे बोलते हैं। इस जवाब के बाद दक्षिण के नेताओं ने कहा यूं तो देश में चूहे सर्वाधिक पाए जाते हैं, तो फिर क्यों ने उसे राजकीय जीव घोषित कर दिया जाए। इस तर्क के बाद मुंह फाडक़र सारे के सारे दक्षिणी नेता, खासकर तमिल के नेताओं ने संसद में ठहाका लगाया था। इस घटना के बाद हिंदी पर कभी कोई बहस सीधी-सीधी नहीं की गई।

हिंदी क्यों जरूरी है, जरा समझिए

गूगल के सौजन्य से.
मौजूदा भाषाई समझ, इस्तेमाल, परस्पर व्यवहार और लिखने, पढऩे, बोलने की क्षमता के मुताबिक भारत में 90 करोड़ लोग सीधे या परोक्ष रूप से हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। महज 35 करोड़ लोग ही ऐसे हैं, जो अन्य भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं। यानी देश की आबादी का महज 28 फीसदी हिस्सा ही ऐसा है, जो हिंदी का इस्तेमाल नहीं करता। लेकिन इसमें भी ऐसा एक बड़ा हिस्सा है, तकरीबन 30 फीसदी तक, जो हिंदी के बारे में जागरूक है, वह हिंदी को आंशिक रूप से समझता भी है। यह आंकड़े अमेरिका की एक एजेंसी ने जुटाए थे।
अमेरिक मूल की एक एमएनसी जब गुडग़ांव में अपना मुख्यालय खोलने पहुंची, तो उसके सामने भाषा की बड़ा संकट पैदा हुआ। तब इसके लिए कंपनी ने एक व्यापक सर्वे करवाया। इसमें पाया गया कि देश के करीब 72 फीसदी लोग हिंदी में जीते हैं। जबकि इसमें 80 फीसदी लोग ऐसे हैं, जो हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओं में असहज हैं। कंपनी ने इस सर्वे में बोलियों तक को हिंदी की निकटस्थ पाया था। इसमें 14वें नंबर पर हिंदी की छत्तीसगढ़ी बोली शामिल थी, जबकि पहले नंबर पर मजबूत, अल्हड़ता और सहजता के साथ बोली जाने वाली हिंदी की हरियाणवी बोली थी। ऐसे में हम यह कैसे कह दें कि हिंदी राज्य भाषा नहीं बन सकती।

90 करोड़ हिंदी वालों की कोई भावनाएं नहीं

तमिल के महज 7 करोड़ लोगों की भावनाएं इतनी मजबूत हैं, कि 90 करोड़ हिंदी बोलने वालों की कोई औकात नहीं। नेहरू ने इस हिंदी के सांप को पिटारे में बंद करके रखा तो, फिर किसी शीर्ष नेता ने दोबारा छुआ नहीं। चूंकि यह उन्हें ही डसने लगा था। अब कहीं जाकर एक वास्तविक मुद्दे के साथ हिंदी को उठाया गया है। जबकि तथ्य कहते हैं, आजादी के समय भारत की आबादी 40 करोड़ थी। अब यह 125 करोड़ है, जिसमें से संवाद, संचार और हिंदी फिल्मों ने हिंदी को और व्यापक बनाया है। 1950 के संदर्भ में हिंदी बोलने वाले और अन्य भाषियों के बीच 60 और 40 का अनुपात था। जबकि अब यह अनुपात घटकर 72 और 28 तक आ गया है। यानी हिंदी बोलने वाले देश में 72 हंैं, तो अन्य भाषी महज 28। इन 28 में भी करीब 12 लोग ऐसे हैं, जो हिंदी को आंशिक रूप से समझते हैं। ऐसे में हिंदी इतने विरोध के बाद देश में बढ़ी है, तो आने वाले वक्त में तो यह दुनिया की भाषा बन सकती है। इसमें किसी को ऐतराज क्यों होना चाहिए। मान लिया जाए कि तमिल को दुनिया की भाषा बनाया जा रहा है, तो क्या हिंदी भाषी इसका विरोध करेंगे। अगर तमिल की स्वीकार्यता है और दुनिया उसे इंज्लिश के स्थान पर स्थापित करना चाहती है, तो इसमें क्या बुरा है। ये सियासत नहीं तो क्या है, जहां 90 करोड़ लोगों की भावनाएं कुचलकर महज 7 करोड़ लोग उनमें भी आधों को तो पता ही नहीं होगा, कि हिंदी और तमिल में कोई लड़ाई है, को खुश किया जाता है।

अब वक्त है जरा नेशनलिज्म का

यह कोई मोदी का करिश्मा नहीं है और न ही भाजपा की भारी चुनावी जीत। एक जन मानस है, जहां हिंदी को व्यापक स्तर पर स्वीकारा जा रहा है। भारतीयता को अपनाया जा रहा है। 80 का दशक पीछे छूट गया है, जब इंज्लिश का आना और हिंदी का न आना उच्च मध्यमवर्गीय होने की निशानी थी। हिंदी का टूटा फूटा बोलना और मजदूरों से हिंदी में बात करने की कोशिश करना व्यावसायिक घराने से ताल्लुक को दर्शाती थी। अब वक्त उल्टा है, जहां संसद में ठेठ कन्नड़ भाषी मल्लिकार्जुन खडग़े बड़ी नफासत के साथ शुद्ध उच्चारण और सही मुहावरों के साथ हिंदी बोलते हैं। अरुणांचल के किरण रिजिजू ऐसी फर्राटेदार हिंदी बोलते हैं, कि लगता ही नहीं कि यह आदमी अहिंदी राज्य का है। हिंदी फिल्मों में संवाद अदायगी में हिंदी के अच्छे शब्दों को आधुनिक शब्दों के साथ घोल कर एक नई शब्द रेसिपी बनाई जा रही है। उर्दू को हिंदी में ऐसे घोल दिया गया जैसे उर्दू कोई हिंदी की ही एक बहन है। इतने खूबसूरत वक्त में जहां तकनीकी में हिंदी के कई सॉफ्टवेयर आ रहे हैं, वहां हिंदी का विरोध बिल्कुल बेवजह है। लोगों को हिंदी के नाम पर भडक़ाना बंद करें, अन्य हिंदी भाषी नेतागण। अब वक्त नेशनलिज्म का है।
- सखाजी
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3 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

bahut hi badhiya lekh. sach kaha aapne ki hindi bhashiyo ki bhi bhavnayein hai aur unka bhi to samman hona chahiye

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

सटीक और सराहनीय प्रस्तुति !!

Barun Sakhajee Shrivastav ने कहा…

स्मिता जी और पूरण जी का तहे दिल से शुक्रिया....

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