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मेरी राय: सिनेमा और गांधी जी

Written By Barun Sakhajee Shrivastav on सोमवार, 19 नवंबर 2012 | 12:41 pm


गांधीजी का होना और फिल्मों का विकास यह दोनों ही घटनाएं एक भारत में अलग-अलग हैं। किंतु यह लेखक की कामयाबी है कि वह इन्हें आपस में जुड़ी सी साबित कर पाया है। दरअसल लेखक यह दावा भी नहीं करता कि गांधीजी फिल्मों को लेकर कोई भी दृष्टि रखते ही थे, और यह भी नहीं कहता कि वे फिल्मों से दूर थे। गांधी के समकाल में बन रहीं फिल्मों में उनके दर्शन और विचार की परोक्ष या अपरोक्ष गं्रथि पुस्तक गांधी और सिनेमा की अधोसंरचना तय करती है। अंत में लेखक एक साधारण पंक्ति में यह स्वीकार भी कर लेता है, कि गांधीजी का फिल्म को लेकर कोई विचार नहीं था। कई बार ऐसा भी महसूस होता है कि गांधी और नेहरू की सोच में संयुक्तता सी है। कला के प्रेमी और नम्र स्वभाव के जादूगर नेहरू का फिल्मों की तरफ सहज रुझान था, लेखक इस बात का जिक्र करके गांधीजी की विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में नेहरू का बहुत ही सफाई से प्रतिपादित करता है। लगभग 200 पेजों की इस रोमांचक यात्रा में यह जानने कि गांधी फिल्म को लेकर क्या सोचते थे, से ज्यादा रुचि इस बात की जागती है कि समकालीन फिल्म जगत में स्वतंत्रता के लिए झगड़े, लड़ाइयां या सतत संग्राम कितना रिफ्लैक्ट हो रहा था। इस बात को बताने में पुस्तक कामयाबी की पराकाष्ठा छूती है।
सिनेमाई विविध और देश का सियासी सांचा किसी देशकाल में मेल नहीं खाता। किसी राजनैतिक घटना पर एकदम सत्य स्वरूपित कोई फिल्म बनना मुमकिन भी नहीं, तभी प्रतीक और घटनाओं में समानता को पेश किया जाता है। पुस्तक की यात्रा में लेखक एक विचार को एकाधिक बार कहता है वह है इस विविधता प्रधान देश को चलाने के लिए कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व चाहिए। यह सत्य है, परंतु मौजूदा उदाहरणों और खांचों के बरक्स सटीक नहीं बैठता। यह बिल्कुल परम सत्य है कि गांधीजी ने जिस धीमी किंतु स्थायी लड़ाई अपनी जीत के लिए चुनी थी, वह आसान नहीं थी। और यह भी सत्य है कि गांधी महज देश को आजाद कराने की कोई भी पंगू जंग नहीं लडऩा चाहते थे। वे तो संपूर्ण मानव को स्वतंत्र, नैतिक, विचारोत्पादकता से भरी कर्म प्रधान सोच देना चाहते थे। इसकी ही प्रक्रिया में देश खुदबखुद आजाद हो जाता।
और पुस्तक में गांधी पर समर्पित सिनेमा की कुछ चुनिंदा फिल्मों की चर्चा में कुछ कंजूसी हो गई। बैन किंज्सले का गांधी बनना कई बार लेखक को अखरा है, किंतु वह विकल्प न देने की टीस से यह आरोप सतह पर नहीं लगाता। आमिर खान की सत्यमेव जयते की कड़ीवार चर्चा सामान्य सी बात है। इसमें विषयानुकूलता कमतर जान पड़ती है। यह कहना सही भी है कि आमिर के इस कार्यक्रम में गांधी की 80 साल पुरानी सोच भी परिलक्षित होती है, किंतु कहीं भी कार्यक्रम में इस बात का श्रेयीकरण नहीं किया गया।
किसी का कोई भी विचार तब तक ही क्रिया और प्रतिक्रिया से परे है, जब तक कि वह विचार रखने वाले के जेहन की कैद में है। और तब तक भी वह महफूज हो सकता है जब तक कि वह इसे नॉनरिकॉर्ड माध्यमों से अभिव्यक्त करता है, लेकिन जैसे ही वह रिकॉर्ड माध्यमों का सहारा लेकर अभिव्यक्त होता है, तो वह क्रिया और प्रतिक्रिया के मुहाने पर आ खड़ा होता है। इस बात को यकीनी तौर पर मानते हुए यह कहना गलत न होगा कि सत्य मेव जयते में एंकर की मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए लेखक मंत्रमुज्ध है, किंतु छोटे परदे की हसीन स्वप्न गलियां दिखाने वाला साकार तरीका कौन बनेगा करोड़पति को आधी पंक्ति में खत्म कर देता है। जैसा कि कहा जा चुका है विचार जेहन में है तभी तक क्रिया और प्रतिक्रियाओं की सूलियों से महफूज है, साकार होकर वह इनसे मुक्त नहीं रह सकता। नतीजतन लेखक का यह पूर्वाग्रह अजीब सा लगता है।
इस सबके बाद। अतिश्रेष्ठ बात। पहली तो 100 साल के इस सिनेमा और 150 साल के गांधी के बीच इत्तेफाक से निकाले गए साम्य अद्भुत हैं। मसलन फाल्के और गांधी का जन्म वर्ष एक होना, दोनों को अपने क्षेत्रों में सक्रिय होने का वक्त कमोबेश एक होना आदि आदि। दूसरी बात पुस्तक इस बात की ताकीद करती है कि 100 बरस के सिनेमा वाले दुनिया के दूसरे सबसे बड़े फिल्म उद्योग में अबतक सिनेमा पर कोई समग्र किताब हिंदी में नहीं लिखी गई। तीसरी फिल्मों की मूलभूत जानकारी पाठ्यक्रमों में शामिल करने जैसी बातें सुखद एहसास जैसी हैं। चौथी मनोरंजन उद्योग को नवक्रांत और उत्साह का जरिया सा महसूस करना भी लेखक का दूरगामी विजन और नजरिया है।
अंत में सबसे अच्छी बात कि पूरी किताब इस बात को कहती है बल्कि यूं कहें कि पुख्तगी से कहती है कि मनोरंजन भी रोटी की तरह अनिवार्य है। इसके अभाव में आदमी भूख की तरह शरीर से नहीं मरता लेकिन विचारों और रचनात्मकता से वह कौमा में रहता है। कौमा इसलिए कि वह रचनात्मकता को समझता है, सुनता है, अच्छा मानता है किंतु स्वयं में नहीं पनपा पाता। और किसी भी मनोरंजन माध्यम पर लिखी पुस्तक का यह राष्ट्र विचार होना भी चाहिए। और शायद इसीलिए सालों से मध्यम वर्ग में टीवी को परीक्षा के समय पूरी तरह से डिस्कनेक्ट करने की परंपरा है। कई घरों में तो केबल तक कटवा दिए जाते हैं। और कुछ लोगों का तो यहां तक आरोप है कि अच्छी फिल्में और कार्यक्रम भी इसी दौर में टीवी वाले दिखाते हैं। जैसे कहीं संसार में कोई एक विचार का टीवी वाला बैठा, जैसे साइकल पर कोई कुल्फी वाला कुल्फियां बेचने की लंबी टेर लगा रहा है और घरों में बैठे बच्चे ललचा रहे हैं। और इनके घरों में टीवी वाला बच्चों को भ्रमित करने वाले कार्यक्रम चला रहा है। अच्छा यह सिलसिला यहीं नहीं थमता, आगे चलकर दूरदर्शन भाई सबके बाप साबित होते हैं, वे मनोरंजन को इतना दूर धकेल देते हैं, कि प्रकांड टीवी दर्शक भी उनकी बातों को अपलक देखे तो ही समझ पाए। वे इतनी कठिन विषय वस्तु पेश करते हैं, मसलन ज्ञानदर्शन पर कठिनतम विज्ञानी प्रयोगों को अधिकतम किस्सागोई से परे करके। अरोचक ढंग से।
वरुण के सखाजी
(गांधी और सिनेमा पुस्तक जयप्रकाश चौकसे, फिल्म और भारतीय सामाजिक आदत, दर्शन, विचार और रवैया पर गहराई से चिंतन करने वाले शख्स द्वारा लिखी गई है।)

गांधीजी का होना और फिल्मों का विकास यह दोनों ही घटनाएं एक भारत में अलग-अलग हैं। किंतु यह लेखक की कामयाबी है कि वह इन्हें आपस में जुड़ी सी साबित कर पाया है। दरअसल लेखक यह दावा भी नहीं करता कि गांधीजी फिल्मों को लेकर कोई भी दृष्टि रखते ही थे, और यह भी नहीं कहता कि वे फिल्मों से दूर थे। गांधी के समकाल में बन रहीं फिल्मों में उनके दर्शन और विचार की परोक्ष या अपरोक्ष गं्रथि पुस्तक गांधी और सिनेमा की अधोसंरचना तय करती है। अंत में लेखक एक साधारण पंक्ति में यह स्वीकार भी कर लेता है, कि गांधीजी का फिल्म को लेकर कोई विचार नहीं था। कई बार ऐसा भी महसूस होता है कि गांधी और नेहरू की सोच में संयुक्तता सी है। कला के प्रेमी और नम्र स्वभाव के जादूगर नेहरू का फिल्मों की तरफ सहज रुझान था, लेखक इस बात का जिक्र करके गांधीजी की विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में नेहरू का बहुत ही सफाई से प्रतिपादित करता है। लगभग 200 पेजों की इस रोमांचक यात्रा में यह जानने कि गांधी फिल्म को लेकर क्या सोचते थे, से ज्यादा रुचि इस बात की जागती है कि समकालीन फिल्म जगत में स्वतंत्रता के लिए झगड़े, लड़ाइयां या सतत संग्राम कितना रिफ्लैक्ट हो रहा था। इस बात को बताने में पुस्तक कामयाबी की पराकाष्ठा छूती है।
सिनेमाई विविध और देश का सियासी सांचा किसी देशकाल में मेल नहीं खाता। किसी राजनैतिक घटना पर एकदम सत्य स्वरूपित कोई फिल्म बनना मुमकिन भी नहीं, तभी प्रतीक और घटनाओं में समानता को पेश किया जाता है। पुस्तक की यात्रा में लेखक एक विचार को एकाधिक बार कहता है वह है इस विविधता प्रधान देश को चलाने के लिए कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व चाहिए। यह सत्य है, परंतु मौजूदा उदाहरणों और खांचों के बरक्स सटीक नहीं बैठता। यह बिल्कुल परम सत्य है कि गांधीजी ने जिस धीमी किंतु स्थायी लड़ाई अपनी जीत के लिए चुनी थी, वह आसान नहीं थी। और यह भी सत्य है कि गांधी महज देश को आजाद कराने की कोई भी पंगू जंग नहीं लडऩा चाहते थे। वे तो संपूर्ण मानव को स्वतंत्र, नैतिक, विचारोत्पादकता से भरी कर्म प्रधान सोच देना चाहते थे। इसकी ही प्रक्रिया में देश खुदबखुद आजाद हो जाता।
और पुस्तक में गांधी पर समर्पित सिनेमा की कुछ चुनिंदा फिल्मों की चर्चा में कुछ कंजूसी हो गई। बैन किंज्सले का गांधी बनना कई बार लेखक को अखरा है, किंतु वह विकल्प न देने की टीस से यह आरोप सतह पर नहीं लगाता। आमिर खान की सत्यमेव जयते की कड़ीवार चर्चा सामान्य सी बात है। इसमें विषयानुकूलता कमतर जान पड़ती है। यह कहना सही भी है कि आमिर के इस कार्यक्रम में गांधी की 80 साल पुरानी सोच भी परिलक्षित होती है, किंतु कहीं भी कार्यक्रम में इस बात का श्रेयीकरण नहीं किया गया।
किसी का कोई भी विचार तब तक ही क्रिया और प्रतिक्रिया से परे है, जब तक कि वह विचार रखने वाले के जेहन की कैद में है। और तब तक भी वह महफूज हो सकता है जब तक कि वह इसे नॉनरिकॉर्ड माध्यमों से अभिव्यक्त करता है, लेकिन जैसे ही वह रिकॉर्ड माध्यमों का सहारा लेकर अभिव्यक्त होता है, तो वह क्रिया और प्रतिक्रिया के मुहाने पर आ खड़ा होता है। इस बात को यकीनी तौर पर मानते हुए यह कहना गलत न होगा कि सत्य मेव जयते में एंकर की मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए लेखक मंत्रमुज्ध है, किंतु छोटे परदे की हसीन स्वप्न गलियां दिखाने वाला साकार तरीका कौन बनेगा करोड़पति को आधी पंक्ति में खत्म कर देता है। जैसा कि कहा जा चुका है विचार जेहन में है तभी तक क्रिया और प्रतिक्रियाओं की सूलियों से महफूज है, साकार होकर वह इनसे मुक्त नहीं रह सकता। नतीजतन लेखक का यह पूर्वाग्रह अजीब सा लगता है।
इस सबके बाद। अतिश्रेष्ठ बात। पहली तो 100 साल के इस सिनेमा और 150 साल के गांधी के बीच इत्तेफाक से निकाले गए साम्य अद्भुत हैं। मसलन फाल्के और गांधी का जन्म वर्ष एक होना, दोनों को अपने क्षेत्रों में सक्रिय होने का वक्त कमोबेश एक होना आदि आदि। दूसरी बात पुस्तक इस बात की ताकीद करती है कि 100 बरस के सिनेमा वाले दुनिया के दूसरे सबसे बड़े फिल्म उद्योग में अबतक सिनेमा पर कोई समग्र किताब हिंदी में नहीं लिखी गई। तीसरी फिल्मों की मूलभूत जानकारी पाठ्यक्रमों में शामिल करने जैसी बातें सुखद एहसास जैसी हैं। चौथी मनोरंजन उद्योग को नवक्रांत और उत्साह का जरिया सा महसूस करना भी लेखक का दूरगामी विजन और नजरिया है।
अंत में सबसे अच्छी बात कि पूरी किताब इस बात को कहती है बल्कि यूं कहें कि पुख्तगी से कहती है कि मनोरंजन भी रोटी की तरह अनिवार्य है। इसके अभाव में आदमी भूख की तरह शरीर से नहीं मरता लेकिन विचारों और रचनात्मकता से वह कौमा में रहता है। कौमा इसलिए कि वह रचनात्मकता को समझता है, सुनता है, अच्छा मानता है किंतु स्वयं में नहीं पनपा पाता। और किसी भी मनोरंजन माध्यम पर लिखी पुस्तक का यह राष्ट्र विचार होना भी चाहिए। और शायद इसीलिए सालों से मध्यम वर्ग में टीवी को परीक्षा के समय पूरी तरह से डिस्कनेक्ट करने की परंपरा है। कई घरों में तो केबल तक कटवा दिए जाते हैं। और कुछ लोगों का तो यहां तक आरोप है कि अच्छी फिल्में और कार्यक्रम भी इसी दौर में टीवी वाले दिखाते हैं। जैसे कहीं संसार में कोई एक विचार का टीवी वाला बैठा, जैसे साइकल पर कोई कुल्फी वाला कुल्फियां बेचने की लंबी टेर लगा रहा है और घरों में बैठे बच्चे ललचा रहे हैं। और इनके घरों में टीवी वाला बच्चों को भ्रमित करने वाले कार्यक्रम चला रहा है। अच्छा यह सिलसिला यहीं नहीं थमता, आगे चलकर दूरदर्शन भाई सबके बाप साबित होते हैं, वे मनोरंजन को इतना दूर धकेल देते हैं, कि प्रकांड टीवी दर्शक भी उनकी बातों को अपलक देखे तो ही समझ पाए। वे इतनी कठिन विषय वस्तु पेश करते हैं, मसलन ज्ञानदर्शन पर कठिनतम विज्ञानी प्रयोगों को अधिकतम किस्सागोई से परे करके। अरोचक ढंग से।
वरुण के सखाजी
(गांधी और सिनेमा पुस्तक जयप्रकाश चौकसे, फिल्म और भारतीय सामाजिक आदत, दर्शन, विचार और रवैया पर गहराई से चिंतन करने वाले शख्स द्वारा लिखी गई है।)
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