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ज़िदगीनामा

Written By pratibha on गुरुवार, 19 मई 2011 | 1:20 pm


शादी के नाम से ही अक्सर लोग बड़े-बड़े ख्वाब सजाने लगते हैं। पर शादी मेरी लिए सिर्फ एक दुर्घटना थी। जिसका घटना एक सामाजिक रवायत है और उसका सफल होना खुदा के हाथ में। पहले मैं अक्सर सोचती थी कि यह दुर्घटना मेरे साथ ही क्यों हुई, लेकिन जल्द ही समझ में आ गया कि इस जमात में मैं अकेली नहीं हूं। मेरे जैसे लाखों लोग हैं जो इस तरह की मानसिक यातना से गुज़र रहे हैं। आगे बढ़ने से पहले मैं एक बात स्पष्ट करना चाहती है कि आप सब के साथ अपनी कहानी शेअर करने के पीछे कोई ज़ज्बात काम नहीं कर रहे। बस एक मंशा है कि जिन भावनात्मक तकलीफों से मुझे गुज़रना होना पड़ा, खुदा न करे कभी आपका उनसे सामना हो। क्योंकि इस तरह की तकलीफों का सामना बहुत कठिन होता है। कुछ सम्भल जाते है तो कुछ डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। मैं भी उस द्वार तक जाकर वापस आई हूं।

मैं एक मध्य वर्गीय परिवार की लड़की हूं। हर लड़की की तरह मैंने भी कुछ सपने देखे थे। सपने साधारण थे फिर भी सपने थे। जब परवेज़ मेरी ज़िदगी में आया तो अचानक मेरे सपनों को पंख लग गए। उसकी पर्सनालटी थी ही ऐसी कि एक बार मिलने के बाद उसे सहज नहीं भुलाया जा सकता था। वह एक अप्रवासी भारतीय था और भारत में अपनी दुल्हन खोजने आया था। इसलिए जब उसके साथ मेरे रिश्ते की बात चली और हमारी मुलाकात हुई तो मेरे पास उसे न कहने के लिए कोई कारण नहीं था। मैं तो भावनाओं में बह रही थी, पर घर वालों को उसके बारे में पता करना चाहिए था कि वो कौन है? क्या करता है? कनाडा में उसकी मिल्कियत क्या है? ये सब वही साधारण प्रश्न जो एक पिता अपनी बेटी का जीवन साथी चुनते समय जानना चाहता है। पर हमारे परिवार पर उसके व्यक्तित्व का जादू सबके सर चढ़कर बोल रहा था। उनके लिए उसके द्वारा कही गई हर बात सही थी। उसकी किसी बात पर कभी किसी ने कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। उसने जो कहा हमने माना। लेन-देन से लेकर शादी के लिए होटल का नाम भी उसने और उसकी मां ने मिलकर तय किया। हमें तो बस बता दिया गया।

कई बार देर रात तक मैंने मम्मी-डैडी को हिसाब-किताब करते देखा, पर ज्यादा तव्वज़ों नहीं दी, यह सोचकर कि शादी-ब्याह में तो ऐसे हिसाब-किताब सभी लोग करते हैं। मुझे नहीं पता था कि अपने अप्रवासी भारतीय होने का लाभ उठाकर वह मम्मी-डैडी को लूट रहा है।

शादी के रस्मों-रिवाज़ों में जितना मेरे परिवार का हाथ खुला हुआ थी, परवेज़ के परिवार की मुट्ठी उतनी ही कसी हुई थी। शादी के दौरान हीं मैंने दोनों परिवारों के बीच एक तनाव सा महसूस किया। लगा डैडी सिर्फ रस्में निभा रहे हैं, पर वे खुश नहीं हैं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

हनीमून के दौरान मैंने परवेज़ से जानने की कोशिश भी की, पर उसने बात को हवा में उड़ा दिया। उसके प्यार के तूफान के आगे सब कुछ बौना बन पड़ गया। सच कहूं तो वो मेरी ज़िदगी के सबसे हसीन दिन थे। पर जल्द ही वो दिन गुजर गए और परवेज़ मुझे तन्हा छोड़ कर कनाडा वापस चला गया। जाते समय उसने बहुत सारे वायदे किए। बराबर यही कहता रहा कि मैं तुम्हारे बिना रह ही नहीं सकता। देखना बहुत जल्द तुम मेरे साथ कनाडा में मेरी बाहों में होगी।

परवोज़ झूठा था। वह मुझसे छल कर रहा था। शुरूआत में उसके फोन आते थे। फिर धीरे-धीरे संख्या घटने लगी। मैं जब भी वीज़ा की बात करती वह कोई न कोई बहाना बना देता। हकीकत तो यह थी कि वह मुझे बुलाना ही नहीं चाहता था। वह तो बस मेरे और मेरी भावनाओं के साथ खेल खेल रहा था।

अब उसके फोन आने भी बंद हो गए थे। यदा-कदा आते भी तो बात करके लगता ही नहीं कि यह वही परवेज़ हैं। फोन पर बस यही कहता कि तुम नौकरी छोड़ दो, तुम मेरे सिवा किसी और से बात करो यह मुझे पसंद नहीं है। कभी-कभी तो हमारे बीच भाषा की मर्यादाएं भी टूट जाती। सभी परेशान थे। कनाडा कोई कल्याण नहीं था कि लोकल पकड़ो और चले जाओ। वहां जाने के लिए पैसा चाहिए था, जो शादी में पहले ही खर्च हो चुका था। घर का हर सदस्य खीझा-खीझा सा रहता था। मैं लोगों की आँखों में अपने लिए एक बेचारगी का भाव पढ़ने लगी थी क्योंकि अब मैं उस घर की बेटी कम परवेज़ की बीवी ज्यादा थी। हर आँख की इबारत मैं पढ़ सकती थी। समझ सकती थी। पर मेरे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं था सिवाय इसके कि परवेज़ मुझे कनाडा बुला ले। मैंने पहली बार महसूस कियी कि शादी के बाद घर किस तरह बदल जाया करते हैं। वे कहते कुछ नहीं, लेकिन उनकी खामोशी सब कुछ बयां कर देती है।

घर में अब कोई भी सहज नहीं था। डैडी की फैक्टरी जो घाटे पर चल रही थी अब उस पर ताला लटक गया था। अब वे अक्सर घर पर ही रहते। घर में पैसे का एकमात्र जरिया मेरी नौकरी थी। मैं चाह कर भी नौकरी नहीं छोड़ सकती थी। सोसायटी का बिल न भरने के कारण आते-जाते नोटिस बोर्ड पर डैडी की नाम देखकर बहुत कोफ्त होती। मैं जितना उसे अनदेखा करने की कोशिश करती उसका आकार दिन-पर-दिन उतना ही बड़ा होता जाता। कई बार वह मुझसे बात भी करने लगता। वह मुझसे पूछता अरे! तुम्हें मिलाकर घर में कुल पाँच लोग ही तो है और तुम उनका भी ख्याल नहीं रख सकती। लानत है तुम पर। मैं उससे पीछा छुड़ने के लिए सामने से गुजर रहे किसी भी रिक्शे में बैठ उसे स्टेशन चलने को कह देती। दरअसल मैं उस पूरे माहौल से भागना चाहती थी।

एक दिन ख़बर मिली कि मामा कनाडा जा रहे हैं मन नें आया कहूं कि मुझे भी ले चलो। आखिर मैं भी तो जानूं कि मेरी ख़ता क्या है? किस बात की सजा मुझे दी जा रही है? लेकिन कह नहीं पायी। वो दिन मुझ पर बहुत भारी थे। हरदम सोचती रहती कि परवेज़ मुझे अपना तो लेगा! अगर नहीं अपनाया तो मैं क्या करूंगी? कहां जाऊंगी? घर वालों की आँखों की तपिश के साथ अब सोसायटी के लोगों की आँखों की तपिश भी मुझे महसूस होने लगी थी। मम्मा अक्सर समझाती चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा। परंतु मुझे समझाते वक्त अपनी आँखों की चिंता वो छुपा नहीं पाती और अचानक उन्हें किचन का कोई काम याद आ जाता और वो चली जाती।

कनाडा से खबर आई पर मेरी रवानगी की नहीं, तलाक की। परवेज़ मुझसे तलाक चाहता था। उसे अब किसी और से प्यार हो गया था। खबर सुनने के बाद घर में मातमी सन्नाटा पसर गया। सब एक दूसरे से आँखे चुरा रहे थे। किसी के पास किसी से कहने के लिए कुछ नहीं थे। अचानक हमारे जीवन का शब्द कोश रीता पड़ गया था। बस कभी-कभी दादी की बड़बड़ाहट सुनने को मिलती। जीवन में पहली बार मुझे अपने लड़की होने पर शर्म महसूस हुई। वैसा देखा जाए तो शर्मिंदगी की कोई बात नहीं थी, मैंने कोई गलती भी नहीं की थी। उल्टे मैंने तो वह सब कुछ किया था जिसकी उम्मीद समाज घऱ के बेटे से करता हैं।

फिर भी दादी की नज़र में मैं एक लड़की थी और वो भी ऐसी जिसे उसके शौहर ने ठुकरा दिया था। वो कभी-कभी गुस्से में कह भी देती, तू निकल जा इस घऱ से तो यहां शांति हो जाय। पर मैं कहां जाती। जीवन के ये वो कुछ पल थे जह लगता था कि सबकुछ खत्म हो गया। अब कुछ शेष नहीं हैं। कई बार आत्महत्या का विचार भी आया। लेकिन मरने के लिए जो ताकत चाहिए, वो मुझमें नहीं थी। इतना सब होने के बावज़ूद मुझे अभी भी ज़िदगी से प्यार था।

जीवन का ताना-बाना उलझने लगा था। जितना मैं सुलझाने की कोशिश करती, वह उतना ही उलझ जाता। मेरे व्यवहार में आ रहे परिवर्तन से घर के सभी लोग परेशान थे, पर कहता कोई कुछ नहीं था। एक दिन जब मैं अकेली बैठी थी मम्मा ने मेरे पास आकर बैठ गई। उन्होंने बड़ी शाइस्तगी से मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा- बेटा तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती। जब कुछ बचा ही नहीं तो उस रिश्ते को पकड़ कर रखने से क्या फायदा। डैडी ने तलाक के पेपर तैयार करवाएं हैं तुम उस पर दस्तखत कर दो। पल भर को लगा कि दिमाग में मानों कोई विस्फोट हो गया हो। पर अगले ही पल मैं संभल गई। मैं नहीं जानती कौन बोल रहा था। मुझे सिर्फ शब्द सुनाई दे रहे थे-हमारा निकाह धार्मिक रीतो-रिवाज से हुआ है तो तलाक भी वैसे ही होगा। मम्मा का जो हाथ थोड़ी पहले मेरे सर पर था। अब उनकी गोद में उन्हीं की तरह खामोश पड़ा था।

मैं क्या चाहती थी सही-सही मुझे भी नहीं पता था। मैं ऊपर से बहुत कठोर बनने का दिखावा करती, पर अंदर से सब कुछ बिखरता जा रहा था। वैसे इस शहर कोई किसी सी वास्ता नहीं रखता पर मेरे मामले पता नहीं क्यों हर कोई यह जानना चाहता था था कि मैं कनाडा कब जा रही हूं। कई बार मुझे रोक कर पूछ भी लेते कि कनाडा से वीज़ा आया की नहीं। सच कहूं ये समाज जो बड़ी-बड़ी बातें करता है बहुत क्रूर है। इन सब स्थितियों से बचने के लिए मैं सुबह आठ बजे ऑफिस के लिए निकल जाती और रात दस-ग्यारह बजे घर लौटती। मैं सिर्फ अपना ही नहीं अपने सहयोगियों का भी काम करती रहती थी।

ज़िदगी में जितने तूफान थे प्रोफेशनल लाइफ मैं उतनी ही तेजी से ऊपर जा रही थी। आपने दोहरे व्यक्तित्त्व के बारे में सुना होगा। मैं उसका जीता जागता उदाहरण हूं। घर से बाहर एकदम मस्त फक्कड़ और घर में एकदम चुप। गलती सिर्फ मेरी हो ऐसा नहीं था, मम्मा मुझसे ठीक वैसे ही व्यवहार करती थी जैसे कभी उनका व्यवहार डैड के साथ हुआ करते थे, जब वे कमाते थे। अब वही काम मैं कर रही थी इसलिए उनकी जगह मुझे बैठा दिया गया था। मम्मा ने आजतक मुझसे कभी मेरी सेलरी के बारे में नहीं पूछा। शायद डैड से भी कभी नहीं पूछा होगा या उन्होंने बताया नहीं होगा। इसलिए वहीं सब सुविधाएं मुझे दी जा रही थी। जो कभी डैड को निलती थी। मुझे लगता कि मम्मा कभी तो मुझे कुछ पूछे। पर उन्होंने कभी नहीं पूछा। मेरी छोटी बहन जो कभी दीदी-दीदी कह के मेरे आस-पास घूमती थी। मेरे पर्स पर मेरे से ज्यादा उसका अधिकार था। उसने भी मुझसे दूरियां बना ली थी। मैं उसके कैरियर को लेकर बहुत उत्साहित रहती थी और यह उसे पसंद नहीं था। एक दिन उसने मुझसे कह ही दिया कि आपको जो कुछ करना है आपनी ज़िदगी के साथ करिए। मैं अपना कैरियर देख लूंगी कि मुझे क्या करना है मुझे पता है। पहली बार शिद्दत से यह महसूस हुआ कि इस घर को मेरी नहीं सिर्फ मेरे पैसों की जरूरत है। मैं पैसा कमाने की मशीन बनकर रह गई थी। ज़िदगी एकदम उबड़-खाबड़ तरीके से चल रही थी। रात में नींद नहीं आती थी। कई बार लगता सर सर्द से फट जाएगा। डॉक्टरों के दरवाजों पर दस्तक धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी।

एक दिन, शायद रविवार ही था डैड के साथ मामा-मामी और मौलवी साहब घर पर आए। मतलब सबकुछ तय हो चुका था। सिर्फ आखिरी ठप्पे की जरूरत थी। मैं अंदर चली गई। लैपटॉप पर उंगलिया फिर रही थी, पर दिखाई कुछ नहीं दे रहा था। मामी के स्पर्ष से ध्यान भंग हुआ, कह रही थी चलो मौलवी जी बुला रहे हैं। ये वही मौलवी थे जिन्होंने निकाहनामें पर दस्तखत करवाएं थे अब तलाकनामें के लाथ हमारे सामने बैछे थे। अजीब बात थी। न निकाह के साय किसी ने मुझसे मेरी राय ली थी और न तलाकनामें के समय। मैंने डैड के हाथ से पेन लिया उस तलाकनामें पर दस्तखत कर दिए जिस पर परवेज़ दस्तखत पहले से मौजूद थे। किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं मुड़ कर अपने कमरे में चली गई। बरसों से जिस बांध को बांध रखा था अचानक टूट गया। कोई सान्त्वना देने नहीं आया। बस डैड की आवाज सुनाई दी। नहीं, कोई नहीं जाएगा। बह जाने दो आज इस सैलाब को, नहीं जीवन भर रुलाएगा। जीवन में पहली बार मैं ऐसे बिलख-बिलख कर रोई, जैसे अपना कोई निकट का संबंधी मर गया हो। मुझे उस बात की सजा मिली थी, दो मैंने कभी की ही नहीं थी।

पर ज़िदगी यहीं खत्म नहीं होती। यह एक पारी का अंत था। तूफान गुज़र चुका था और इस बार मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा था। मैं अकेली नहीं थी। मुझे तरक्की देकर अमेरिका में खुले नए ऑफिस में भेजा जा रहा था। इस यात्रा की तैयारी किसी और के आदेशों पर नहीं हो रही थी। मेरी इस सफलता के मौके पर मेरा परिवार साथ खड़ा था। वो छोटी बहन जिसे उसके कैरियर में मेरी दखलंसदाजी पसंद नहीं थी। मेरे कान में कह रही थी आप परेशान मत होना, मैं यहां सब देख लूंगी। दी, इस बार आप अपना ज़िदगी अपनी शर्तों पर जीना किसी........मैं मुस्करा दी और उसे अपने गले लगा लिया।

-प्रतिभा वाजपेयी

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2 टिप्पणियाँ:

vandana gupta ने कहा…

आँखें नम हो गयीं……………ज्यादा क्या कहूँ बस इतना ही कि ये सही है हमे ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीनी चाहिये ।

prerna argal ने कहा…

badi dukhdai rachanaa.ye hum bhartiyon ki kamjori hai.ki bahar se aaye nri ke paison ki chamak damak dekh ker hum unke saamne dab jaaten hain aur naa jydaa pata karate hain aur ladkiyon ki shaadi kar dete hai pata nahi kitani ladkiyon ki jindagi barbaad ho jaati hai .kuch to yahan rahker ,kuch ko wo log wahan le jaa ker nokraaniyon ke samaan jindagi bytit karanaa padataa hai,lekin aapne apni jindagi ko sahi dishaa main mod ker apni sharton per jindagi jeene ka jo nirday liyaa hai wo adbhut hai .badhaai aapko.

please visit my blog and leave the comments also,thanks

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